राहत शिविरों का सच

अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दंगा पीड़ित और उनके लिए स्थापित किए गए राहत शिविर लगातार खबरों का हिस्सा बने हुए हैं तो इसके लिए अखिलेश सरकार किसी अन्य को दोष नहीं दे सकती। मुजफ्फरनगर और शामली के राहत शिविरों में बड़ी संख्या में बच्चों की मौत से इन्कार कर रही राज्य सरकार जिस तरह यह मानने के लिए विवश हुई कि पिछले ढाई माह में 34 बच्चों की मौत हुई है उससे यह साफ हो जाता है कि पहले सच्चाई को छिपाने की कोशिश की जा रही थी। जब इन राहत शिविरों में करीब 50 बच्चों की मौत की बात सामने आई थी तो राज्य सरकार ने न केवल सिरे से इन्कार किया था, बल्कि इन शिविरों की दुर्दशा का सवाल उठाने वालों को झिड़का भी था। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि आखिरकार मेरठ के मंडलायुक्त के नेतृत्व वाली समिति ने 34 बच्चों की मौत की बात मान ली, क्योंकि उसने इन मौतों के कारणों का उल्लेख करने की जहमत नहीं उठाई है। समिति का जोर यह साबित करने पर है कि इन मौतों के लिए किसी तरह अव्यवस्था जिम्मेदार नहीं है। समिति ने बच्चों की मौत ठंड की वजह से होने से साफ इन्कार किया है। पता नहीं सच क्या है, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को जिस तरह यह लग रहा है कि बच्चों की मौत ठंड से बचाव के पर्याप्त प्रबंध न होने से भी हुई उससे दूसरी ही तस्वीर उभर रही है। राज्य सरकार भले ही यह दावा करे कि राहत शिविरों में हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं, लेकिन वहां के हालात इन दावों की चुगली करते हैं।
राहत शिविरों में रह रहे लोग लगातार यह शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। उनकी नई शिकायत यह है कि उन्हें पर्याप्त मुआवजा दिए बगैर शिविर खाली करने को कहा जा रहा है। यह विचित्र स्थिति है कि राज्य सरकार जब सब कुछ दुरुस्त बता रही है तब राहत शिविरों में रह रहे लोगों की शिकायतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। पिछले दिनों सपा प्रमुख मुलायम सिंह ने जिस तरह इन शिविरों में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के दौरे के बाद यह कहा कि अब वहां केवल कांग्रेस और भाजपा के समर्थक ही रह रहे हैं उससे उन्होंने मुसीबत मोल लेने का ही काम किया है। इस पर आश्चर्य नहीं कि कोई भी उनके इस बयान से सहमत नजर नहीं आ रहा है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि यह सहज स्वीकार नहीं किया जा सकता कि कुछ लोग किसी राजनीतिक साजिश के तहत राहत शिविरों में बने रहना चाहते हैं। यदि एक क्षण के लिए इसे मान भी लिया जाए तो इसके लिए राज्य सरकार ही जवाबदेह है। बेहतर हो कि सपा के नेता यह समझें कि राहत शिविरों में व्याप्त अव्यवस्था की अनदेखी करने से उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इसी तरह इन शिविरों में रह रहे लोगों को पर्याप्त मदद दिए बगैर हटाने से भी बात बनने वाली नहीं है। यह चिंताजनक है कि उत्तार प्रदेश सरकार पहले सांप्रदायिक हिंसा रोक पाने में बुरी तरह नाकाम रही और अब इस हिंसा से पीड़ितों को मदद देने में भी असफल साबित होती दिख रही है। सबसे खराब बात यह है कि वह अपनी असफलता का दोष अपने राजनीतिक विरोधियों पर मढ़ना चाहती है।